Skip to content

दीन दुखियों की सेवा ही असली सेवा है

    एक समय की बात है एक रियासत में एक राजमाता रहती थी। वह बहुत धार्मिक विचारों की स्त्री थी। एक दिन राजमाता ने सोचा कि क्यों न सोने का तुला दान कर के मंदिर में चढ़ाया जाए। राजमाता ने अपने मन में आये विचार को अंजाम तो दिया। परन्तु ऐसा करने के बाद उसके मन में अहंकार पैदा हो गया कि आज तक और किसी ने बहुमूल्य सोने का दान नहीं किया होगा। रात को जब वह सोयी तो भगवान ने उसके सपने में आकर उसे कहा कि मेरे मंदिर में एक गरीब महिला आई है। उसके संचित पुण्य असीमित हैं। उनमे से कुछ पुण्य तुम स्वर्ण मुद्राएँ देकर खरीद लो। तुम्हारे परलोक में काम आएंगे।

    जैसे ही राजमाता की नींद खुली, वह बहुत बैचैन हो उठी और उसने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि मंदिर में एक गरीब महिला मिलेगी उसे यहाँ ले आयो।

    राजमाता के आदेशानुसार सिपाही मंदिर से उस महिला को पकड़कर ले आये। वह गरीब महिला बहुत घबराई हुई थी। राजमाता ने उस महिला से कहा कि ‘तुम अपने संचित पुण्य में से कुछ हमें दे दो बदले में हम तुम्हे जितनी तुम चाहो तुम्हे स्वर्ण मुद्राएँ भेंट करेंगे।

    यह सुनकर वह महिला बोली कि मुझ गरीब से भला पुण्य के कार्य कैसे हो सकते है। मैं तो दर दर भटक कर भीख मांगती हूँ। कल जब मुझे भीख मिली तो मेरे मन में विचार आया कि मंदिर में जाकर भगवान को भोग लगा दूँ और उनके दर्शन भी कर लूँ। पर रास्ते में मुझे एक भिखारी मिला जो बहुत भूखा था। इसलिए मैंने आधा सत्तू उसे दे दिया और बाकि सत्तू का मैंने मन्दिर में भगवान को भोग लगा दिया। जब मैं भगवान को ठीक से प्रसाद भी नहीं चढ़ा पायी तो भला पुण्य कैसे अर्जन होगा?

    यह सब सुनकर राजमाता की आँखे खुल गयी और उसका अहंकार नष्ट हो गया। क्योंकि अब वो समझ चुकी थी कि निस्वार्थ समर्पण की भावना से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे असीमित पुण्य दिया है। इसके बाद राजमाता समझ गयी कि दीन दुखियों की सेवा ही असली सेवा है। उसी में भगवान प्रसन्न होते हैं।

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *