hauman met ravana

कैलाश से दक्षिण में, समुद्र के पार एक स्वर्णमयी नगरी थी — लंका
उसकी दीवारें सोने की थीं, उसके द्वार रत्नों से जड़े थे, और उसके राजा रावण का अहंकार आकाश से ऊँचा था।
पर उसी लंका में, अशोक वाटिका के एक वृक्ष के नीचे, बैठी थीं सीता माता — दुख में भी धर्म का दीपक बनकर।

भगवान राम का संदेश पहुँचाने का दायित्व एक ही देवता ने लिया —
पवनपुत्र हनुमान।
जो केवल शक्ति के प्रतीक नहीं, बल्कि विवेक, विनम्रता और अटूट भक्ति के मूर्त रूप हैं।


🌿 लंका में प्रवेश — भक्ति की गोपनीय यात्रा

समुद्र पार करने के बाद हनुमान ने जब लंका के दरवाज़े पर प्रवेश किया, तो रात्रि का समय था।
द्वार पर लंकिनी नामक देवी प्रहरी थी।
हनुमान ने पहले शांति से प्रवेश चाहा, पर जब उसने उन्हें रोका, हनुमान ने हल्की चपेट से उसे परास्त किया।
लंकिनी बोली —

“हे वानर, आज से लंका का पतन प्रारंभ हो गया है। क्योंकि जब धर्म का दूत लंका में प्रवेश करता है, तो अधर्म की दीवारें टूट जाती हैं।”

यह वाक्य भविष्यवाणी था — रावण के अंत की घोषणा।

हनुमान अदृश्य रूप में लंका के मार्गों पर चले।
हर महल, हर आँगन, हर उद्यान को देखा।
फिर उन्हें वह स्थान दिखा — अशोक वाटिका — जहाँ एक वृक्ष के नीचे बैठी थीं माता सीता
उनकी आँखों में अश्रु थे, पर भीतर तेज था।
हनुमान ने विनम्र स्वर में कहा —

“माँ, मैं राम का दूत हूँ। आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ।”

और उन्होंने राम की अंगूठी दिखाई।
सीता की आँखों से आँसू बहे — वे पहचान गईं, यह कोई साधारण वानर नहीं।
उन्होंने आशीर्वाद दिया —

“वत्स, जाकर राम को मेरा संदेश देना। कह देना कि सीता अब भी उनके नाम पर जीवित है।”


🌺 कैसे हनुमान स्वयं को पकड़े जाने देते हैं

सीता से मिलकर हनुमान सहजता से लौट सकते थे, पर उन्होंने वैसा नहीं किया।
उन्होंने सोचा —

“मैं केवल सीता का समाचार नहीं, बल्कि लंका की शक्ति और रावण का स्वरूप भी जान लूँ।”

इसलिए उन्होंने कुछ राक्षसों को स्वयं अपनी झलक दी।
उन्हें पकड़ लिया गया — और जंजीरों में बाँधकर रावण के दरबार में ले जाया गया।

यह कोई हार नहीं थी, बल्कि एक रणनीति थी —
रावण से सीधे मिलने का अवसर।


🔱 रावण के दरबार में — धर्म और अधर्म का संवाद

लंका के स्वर्ण सिंहासन पर बैठा रावण — दस मुखों वाला, पर एक ही मन से अंधकार से भरा।
उसके दरबार में देवता, राक्षस और योद्धा उपस्थित थे।
हनुमान को लाया गया, बंधा हुआ, किंतु नतमस्तक नहीं।

रावण ने हँसते हुए कहा —

“वानर! तू कौन है जो मेरे नगर में घुस आया?”

हनुमान ने गंभीरता से उत्तर दिया —

“मैं भगवान राम का दूत हूँ। वह राम जो धर्म के रक्षक हैं।
तूने उनकी पत्नी का अपहरण किया है, और अब समय आ गया है कि तू पश्चाताप करे।”

रावण का चेहरा लाल हो गया।
उसने व्यंग्य किया — “राम कौन है? जो वन में भटकता है?”

हनुमान शांत रहे। बोले —

“वह जो वन में है, वही तेरा अंत करेगा।
मैं केवल संदेश लाया हूँ — ‘सीता को लौटा दे, वरना तेरा राज्य जल जाएगा।’”

यह संवाद केवल शब्दों का नहीं, बल्कि सत्य और अहंकार का युद्ध था।


⚔️ रावण का आदेश — पूँछ में आग लगाओ

रावण ने क्रोध में कहा —

“इस वानर को दण्ड दो। इसकी पूँछ में तेल लगाकर अग्नि लगाओ। यही इसकी मर्यादा है।”

राक्षसों ने आदेश का पालन किया।
हनुमान की पूँछ में कपड़ा बाँधा, तेल लगाया और उसे जला दिया।
पर यह भूल गए कि जिस पूँछ में अग्नि है, उसमें देवता का तेज भी है।

हनुमान ने हँसते हुए कहा —

“अब देखो, यह वही अग्नि है जो अधर्म को भस्म करेगी।”

वे छोटे हुए, बड़े हुए, फिर आकाश में छलाँग लगाई — और लंका की छतों, उद्यानों, महलों में आग लगा दी।
क्षणभर में सोने की नगरी लाल ज्वालाओं से भर गई।

लेकिन ध्यान दें — हनुमान ने किसी निर्दोष को नहीं मारा।
उन्होंने केवल रावण की अहंकारमयी संपत्ति को भस्म किया।


🌸 लंका दहन — प्रतीक नहीं, चेतावनी

लंका का जलना कोई प्रतिशोध नहीं था, बल्कि एक दैवीय संकेत था —
कि जब अधर्म अपनी सीमा लाँघ देता है, तब ईश्वर की लीला स्वयं न्याय बन जाती है।
हनुमान की पूँछ की अग्नि किसी क्रोध की नहीं, बल्कि सृष्टि के संतुलन की अग्नि थी।

अग्नि में जो जला, वह केवल भवन नहीं — रावण का घमण्ड था।


🌞 रावण के सामने हनुमान का अंतिम वचन

लंका दहन से पहले, जब हनुमान रावण के सामने खड़े थे, उन्होंने आखिरी बार कहा —

“रावण! तेरे भीतर महान बल है, पर धर्म नहीं।
सीता को लौटा दे।
यह वही राम हैं जिनके तीर अधर्म को भेद देंगे।
जब धर्म चलता है, तो स्वयं देवता उसके रथ को आगे बढ़ाते हैं।”

पर रावण हँसता रहा।
उसकी हँसी में अंधकार था — और वही अंधकार बाद में उसका अंत बना।


🪶 हनुमान की वापसी — आशा का दीपक

हनुमान वापस लौटे, समुद्र पार किया, और राम के सामने जाकर बोले —

“प्रभु, मैंने माता सीता को देखा। वह सुरक्षित हैं।
और अब युद्ध निश्चित है।”

राम ने उन्हें गले लगाया।
यह आलिंगन केवल प्रसन्नता नहीं था — यह इतिहास के सबसे बड़े धर्मयुद्ध की शुरुआत थी।


🕊️ शास्त्रीय संदर्भ — जहाँ यह कथा मिलती है

यह कथा सबसे पहले वाल्मीकि रामायण के सुंदरकाण्ड में मिलती है।
यह वही खंड है जो भक्तिपूर्ण होने के साथ-साथ सामरिक और दार्शनिक भी है।

  • शिव पुराण में लिखा है कि हनुमान का यह कार्य शिव की लीला था — क्योंकि हनुमान स्वयं शंकर के अंश हैं।
  • स्कंद पुराण कहता है — यह दूतावास युद्ध से पहले अंतिम चेतावनी थी।
  • लिंग पुराण इसे रावण के कर्मों का प्रतिफल बताता है।
  • रामचरितमानस (सुंदरकांड) में तुलसीदास ने इसे भक्तिरस से भरा — “जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर।”
    — यहाँ हनुमान केवल योद्धा नहीं, बल्कि सत्य के प्रतिनिधि हैं।

🌿 कथा का गूढ़ अर्थ

हनुमान और रावण की यह भेंट केवल एक युद्ध-पूर्व प्रसंग नहीं, बल्कि नीति और भक्ति का शाश्वत संवाद है।

  • हनुमान — भक्ति में बुद्धि का प्रतीक हैं।
    वे जानते हैं कब शक्ति दिखानी है और कब विनम्रता रखनी है।
  • रावण — ज्ञान होने के बाद भी अहंकार का प्रतीक है।
    जिसने वेद पढ़े, पर सत्य नहीं समझा।
  • लंका दहन — यह बताता है कि जब मन अहंकार से भर जाता है, तो ईश्वर स्वयं उसे जला देता है।

हनुमान का धैर्य, उनका संतुलन, उनका आत्म-नियंत्रण — यह सब हमें सिखाता है कि धर्म का मार्ग शक्ति से नहीं, नियंत्रण से बनता है।


🔱 इस कथा का संदेश — आज के युग के लिए

  1. अहंकार का अंत निश्चित है। चाहे वह रावण का हो या मनुष्य का।
  2. भक्ति अंधी नहीं होती। सच्ची भक्ति में बुद्धि और धर्म का मेल होता है।
  3. हनुमान का धैर्य सिखाता है कि अन्याय से लड़ना भी भक्ति का एक रूप है।
  4. दूत का धर्म — सत्य बोलना, चाहे वह राजा को क्यों न चुभे।

हनुमान की यह भेंट हमें बताती है —

“शक्ति की पराकाष्ठा तब है जब वह धर्म की सेवा में झुकी हो।”


🌸 समापन

जब हनुमान रावण से मिले, तब केवल दो प्राणी नहीं, दो तत्त्व आमने-सामने थे —
धर्म और अधर्म, प्रकाश और अंधकार, अहंकार और भक्ति।

रावण ने शक्ति को साधन बनाया;
हनुमान ने शक्ति को समर्पण बनाया।
और इतिहास ने निर्णय दिया —

“जहाँ शक्ति में अहंकार है, वहाँ अंत है।
जहाँ शक्ति में भक्ति है, वहाँ ईश्वर स्वयं प्रकट होता है।”


🌺
“रामदूत अतुलित बलधामा, अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।”
जय हनुमान। जय धर्म। जय भक्ति।

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