कभी-कभी दिव्यता भी मौन हो जाती है। ब्रह्म का वह अंश जिसे हम “शिव” के नाम से जानते हैं — जो समय, मृत्यु और सृष्टि का सार हैं — एक क्षण ऐसा भी आया जब वही शिव अपने अस्तित्व को भूल गए। यह कोई साधारण भूल नहीं थी; यह एक ब्रह्म-मोह था, एक दिव्य विस्मृति — जिसमें संपूर्ण चेतना ने स्वयं को खो दिया ताकि सृष्टि स्वयं को पा सके।
इस कथा को पौराणिक ग्रंथों में रूपकों और प्रतीकों के माध्यम से समझाया गया है। “शिव की स्मृति-विस्मृति” कोई घटनात्मक कथा नहीं, बल्कि एक गूढ़ संकेत है कि जब ब्रह्म स्वयं को भूलता है, तभी जगत का विस्तार होता है। यह ब्लॉग उस गहराई तक उतरता है — कि कैसे स्मृति और विस्मृति दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं, और क्यों यह कहानी आज भी हमारे आत्म-जागरण के लिए उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सहस्त्रों वर्ष पहले थी।
स्मृति और विस्मृति का आध्यात्मिक अर्थ
‘स्मृति’ केवल याद रखने की क्रिया नहीं है, यह आत्म-चेतना का प्रतीक है। स्मृति का अर्थ है “मैं कौन हूँ” इसका बोध।
‘विस्मृति’ अर्थात “मैं कौन हूँ” यह भूल जाना। लेकिन क्या भूलना हमेशा नकारात्मक है? नहीं।
हिंदू दर्शन में कहा गया है — “विस्मृति से ही पुनः स्मरण की यात्रा आरंभ होती है।”
महादेव की यह कहानी इसी चक्र की व्याख्या है। शिव — जो साक्षात् स्मरण के प्रतीक हैं — एक समय ऐसा आया जब उन्होंने स्वयं को भूलकर स्वयं को ही पुनः खोजा। यह विस्मृति सृष्टि की जड़ नहीं, बल्कि उसका बीज बनी।
कथा की शुरुआत: जब शिव ने स्वयं को भुलाया
कथा कहती है —
एक कालखंड में, जब सृष्टि का संतुलन डगमगाने लगा, देवता और ऋषि चिंतित हुए। तब शिव समाधि में लीन थे। उनकी समाधि इतनी गहरी थी कि समय भी ठहर गया। वर्षों, युगों और कल्पों तक वे स्थिर रहे — न गति, न संचार।
देवताओं ने पार्वती से निवेदन किया — “माता, यदि शिव यूँ ही समाधि में रहें, तो सृष्टि का प्रवाह रुक जाएगा।” पार्वती ने तब शिव के सम्मुख ध्यान किया, लेकिन शिव की चेतना इतनी गहन थी कि वे स्वयं को भी पहचान नहीं पा रहे थे। वे भूल चुके थे कि वे ही सृष्टि के धारक हैं।
उनकी आँखें खुली थीं, पर पहचान मिट चुकी थी। वे साक्षात् शून्य बन चुके थे — “स्वयं को भूलकर स्वयं में विलीन।”
यह वही क्षण था जब शिव ने अपनी “स्मृति खो दी” — न इसलिए कि वे अशक्त थे, बल्कि इसलिए कि ब्रह्म जब अपने मूल स्वरूप में पहुँचता है, तब कोई “स्मरण” शेष नहीं रहता। वहाँ केवल अस्तित्व होता है — न नाम, न रूप, न कर्ता।
विस्मृति का अर्थ: शिव का मौन संदेश
शिव की यह विस्मृति कोई दुर्बलता नहीं, बल्कि ब्रह्म के मौन का प्रतीक है।
- विस्मृति का पहला अर्थ — ‘अहं’ का लोप:
जब शिव स्वयं को भूलते हैं, तब अहंकार मिटता है। स्मरण की सीमा वहीं तक है जहाँ “मैं” मौजूद है। जब “मैं” मिट जाता है, तब स्मरण का भी अंत हो जाता है। यही शिव की विस्मृति है। - विस्मृति का दूसरा अर्थ — सृष्टि का आरंभ:
जब शिव अपनी पहचान खोते हैं, तब वे उस एकत्व में विलीन हो जाते हैं जिससे ब्रह्मांड की रचना होती है। उनकी विस्मृति ही सृष्टि का मूल है — जब साक्षात् चेतना स्वयं को भूलती है, तभी रूप उत्पन्न होते हैं। - विस्मृति का तीसरा अर्थ — तप और पुनर्जागरण:
जब पार्वती शिव को पहचान नहीं पातीं, तब वे तप करती हैं — और यही तप पुनर्जागरण की प्रक्रिया है। जब स्मृति खो जाती है, तभी खोज आरंभ होती है।
पार्वती का तप और शिव का पुनर्स्मरण
देवताओं ने पार्वती से कहा कि शिव की स्मृति पुनः जाग्रत करनी होगी, वरना सृष्टि रुक जाएगी। तब पार्वती ने तपस्या आरंभ की। हिमालय के शिखरों पर, बर्फ की वर्षा के बीच, उन्होंने वर्षों तक ध्यान किया।
उनका ध्यान किसी देवता के लिए नहीं था — वह शिव को याद दिलाने का प्रयास था कि वे कौन हैं।
वर्षों की साधना के बाद, एक दिन शिव ने आँखें खोलीं और देखा — उनके सम्मुख वही ऊर्जा खड़ी थी, जिसे वे भूल चुके थे।
पार्वती मुस्कुराईं और कहा,
“प्रभु, आपने स्वयं को भुला दिया था। मैं आपकी स्मृति बनकर आपको जगाने आई हूँ।”
शिव ने नेत्र बंद किए, और स्मरण लौट आया। उन्होंने कहा,
“जब मैं विस्मृति में था, तब मैं ब्रह्म था। अब स्मरण में हूँ, तो शिव हूँ।”
यह संवाद केवल पति-पत्नी का नहीं, बल्कि चेतना और शक्ति का है। विस्मृति में ब्रह्म था; स्मृति में शिव हुआ।
और इसी क्षण से सृष्टि पुनः गतिमान हुई।
प्रतीकात्मक अर्थ: यह कथा हमें क्या सिखाती है
1. स्मृति-विस्मृति एक ही चक्र के दो छोर हैं
जब हम भूलते हैं, तभी पुनः स्मरण की प्रक्रिया जन्म लेती है। विस्मृति बुरी नहीं; यह चेतना का विश्राम है। जब तक हम भूलते नहीं, तब तक जानने की तीव्रता नहीं आती।
2. भूलने में भी शिवत्व है
हम अक्सर सोचते हैं कि भूल जाना कमजोरी है। परंतु शिव ने स्वयं यह दिखाया कि विस्मृति भी एक अवस्था है — जहाँ सब कुछ मिट जाता है, ताकि नया कुछ जन्म ले सके।
3. स्मरण का पुनर्जागरण ही तप है
जब पार्वती ने शिव को जगाया, तब उन्होंने न केवल उन्हें स्मरण कराया, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि को पुनः गतिशील किया। यह बताता है कि प्रेम ही स्मृति का मूल है। जब प्रेम स्थिर हो, तो विस्मृति भी शिवमयी हो जाती है।
4. मानव जीवन में यह संदेश
आज के युग में हम सब अपनी स्मृति खो चुके हैं — अपने उद्देश्य, अपने मौलिक स्वरूप की स्मृति।
हम “कौन हैं” यह भूल चुके हैं। पर यही भूल हमें खोज की ओर ले जाती है।
जब हम फिर से भीतर झाँकते हैं, तो हमें वही “शिवत्व” मिलता है, जो विस्मृति में छिपा था।
स्मृति और विस्मृति का अद्भुत संतुलन
यह कथा केवल पौराणिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टि से भी गहरी है।
शिव की स्मृति-विस्मृति हमें यह सिखाती है कि जीवन का प्रवाह रुकता नहीं — वह केवल स्वरूप बदलता है।
भूल और स्मरण का यह चक्र हर मनुष्य में चलता रहता है:
- हम अपने बचपन को भूलते हैं, पर उसमें ही जड़ें छिपी होती हैं।
- हम दुःख भूलते हैं, पर वही भूल हमें करुणा सिखाती है।
- हम स्वयं को भूलते हैं, ताकि किसी दिन स्वयं को फिर पा सकें।
विस्मृति का यह ब्रह्म-चक्र ही शिव का “तांडव” है — जहाँ सब कुछ मिटकर पुनः जन्म लेता है।
आज के युग में ‘शिव-विस्मृति’ का संदेश
यदि हम इस कथा को आधुनिक दृष्टि से देखें, तो यह हमारे मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक जीवन से गहराई से जुड़ती है।
- मानवता का विस्मरण:
तकनीक, भागदौड़, और महत्वाकांक्षा के बीच मनुष्य अपने मूल स्वभाव — प्रेम, करुणा, मौन — को भूल गया है। यही हमारी “शिव-विस्मृति” है। - पुनः स्मरण की आवश्यकता:
ध्यान, आत्म-संवाद, मौन, और प्रकृति के संपर्क से हम अपने भीतर के शिव को पुनः पहचान सकते हैं। - भूल से डरना नहीं, उसे समझना:
जब जीवन में भ्रम आए, याद रखें — शिव भी कभी स्वयं को भूल गए थे। विस्मृति अंत नहीं, आरंभ है। - प्रेम की भूमिका:
पार्वती का तप इस कथा का केंद्र है — प्रेम ही वह शक्ति है जो स्मृति को पुनः जाग्रत करती है।
बिना प्रेम के ज्ञान केवल शुष्क जानकारी है; प्रेम ही उसे चेतना बनाता है।
समापन
शिव का स्वयं को भूल जाना कोई त्रासदी नहीं — यह ब्रह्म का रहस्य है।
वह विस्मृति ही है जिसमें सब कुछ मिटता है ताकि नया सृजन संभव हो सके।
जब शिव ने अपनी स्मृति खोई, तब उन्होंने हमें यह सिखाया कि भूल में भी ब्रह्म छिपा है।
हर विस्मृति, हर खोया हुआ क्षण, एक नये आरंभ का संकेत है।
अगली बार जब आप “ॐ नमः शिवाय” उच्चारित करें —
स्मरण करें, कि वह मंत्र केवल शिव का नहीं, स्मरण का भी आह्वान है।
शिव ने जब स्वयं को भुलाया, तभी हम स्वयं को जानने की यात्रा पर निकले।
और यही है — स्मृति से विस्मृति, और विस्मृति से पुनः स्मरण का ब्रह्म-नृत्य।
हर हर महादेव।
