Samudra Manthan

किसी भी कथा में कुछ पलों में इतना घटनाक्रम समाया होता है कि सदियाँ गुजर जाएँ, पर उसकी परतें खत्म न हों। समुद्र मंथन ऐसी ही कहानी है—लंबी, गहरी, और अंदर तक खिंचती हुई।

शुरुआत होती है देवताओं की परेशानी से।

इंद्र ने अनजाने में ऋषि दुर्वासा के अपमान को जन्म दिया। यह बात देवताओं पर भारी पड़ी। उनकी शक्ति घटने लगी। वह सामर्थ्य, जिसके दम पर वे स्वर्ग संभालते थे, धीमी रोशनी की तरह झिलमिलाने लगी। उधर असुरों के हाथ में अब तेज होता हुआ आत्मविश्वास था।

ऐसे समय में विष्णु के पास पहुँचे देवता।
उन्होंने कहा—शक्ति वापस चाहिए।
विष्णु शांत रहे, और समाधान भी उतना ही शांत था:

क्षीरसागर का मंथन करो।

समुद्र के तले में वह सब था जो समय पर राष्ट्रों की शक्ति बदल सकता है—औषधि से लेकर संपदा तक, ज्ञान से लेकर आयु तक।


मंथन के लिए अकेले देवताओं की शक्ति काफी नहीं थी।
यहाँ कहानी का पहला मोड़ आता है—

विरोधियों के साथ सहयोग।

देव और असुर, दोनों ही समुद्र के किनारे एक साथ खड़े हुए।
एक दृश्य जो किताबों में सरल दिखता है,
पर राजनीति की वास्तविकता है।

मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया गया,
और वासुकी नाग ने रस्सी का स्थान लिया।

जैसे ही प्रयास शुरू हुआ, पर्वत डूबने लगा।
शक्ति सामूहिक थी, लेकिन साधन अस्थिर।
विष्णु ने कूर्म अवतार धारण किया
और पर्वत को अपनी पीठ पर थाम लिया।

कभी-कभी सबसे बड़े काम के लिए कोई दिखता नहीं,
परंतु आधार वही संभालता है।


मंथन ने जो पहली चीज़ दी,
वह किसी पक्ष की नहीं थी—
हलाहल, घातक विष।

यह विष फैलता तो संसार की साँसें रुक जातीं।
देव और असुर दोनों पीछे हटे।
यहीं शिव सामने आते हैं।

उन्होंने विष को अपने कंठ में रोक लिया।
कहते हैं, उनका कंठ नीला इसलिए हुआ।

यही वह क्षण है जब कहानी शक्तियों की प्रतिस्पर्धा से हटकर ज़िम्मेदारी की पहचान बन जाती है।


जैसे-जैसे मंथन आगे बढ़ा, समुद्र की सतह अलग-अलग खज़ाने देने लगी।

कुशलता।
भ्रम।
औषधियाँ।
धन।
बल।

प्रत्येक वस्तु किसी न किसी के स्वभाव के अनुकूल थी।
कुछ देवों ने स्वीकार की,
कुछ असुरों ने कब्ज़ा की,
और कुछ ने दोनों पक्षों से दूरी बनाई।

सबसे अधिक उत्साह का कारण बना—अमृत
एक घड़ा अमरता का।

असुरों की आँखों में पहली बार भय दिखाई दिया कि कहीं यह अवसर छूट न जाए।
देवता शांत थे, पर सतर्क।

यहीं कथा में मोहिनी प्रवेश करती हैं—विष्णु का रूप, जो भ्रम नहीं, व्यवस्था बनाता है।
अमृत का वितरण हुआ,
और असुरों ने देर से समझा कि वे किसी और की चतुराई के शिकार हो गए हैं।


समुद्र से निकले ये चौदह रत्न वस्तु नहीं थे;
वे अलग-अलग समय के परिणाम थे।

लक्ष्मी—समृद्धि की दिशा तय करती हैं।
ऐरावत—राजसत्ता की गरिमा बढ़ाता है।
धन्वंतरि—आयु और उपचार का मार्ग दिखाते हैं।
कामधेनु—अन्न और पोषण का प्रतीक बनती हैं।

ये सभी रत्न ऐसे लगते हैं मानो किसी कलाकार ने समाज का ढाँचा समझ कर उन्हें बाँटा हो।


समुद्र मंथन पर अक्सर दो ध्यान रहते हैं—
देव और असुर कौन जीते?

लेकिन कहानी का केंद्र कहीं और है—

दोनों पक्षों ने मेहनत की,
दोनों को लाभ मिला,
लेकिन जो सच्चा विजय था,
वह था संतुलन

किसके पास क्या पहुँचेगा,
यह तय करने में केवल बल नहीं,
व्यवहार भी लगा।

अंत में देवताओं की रोशनी लौट आई।
असुर पीछे हटे।
पर समुद्र ने सबको एक बात सिखा दी—

जो तट पर दिखता है,
उसके नीचे एक और संसार है।

यह कथा यह भी कहती है कि
सहयोग कभी-कभी विरोधियों के बीच भी आवश्यक होता है।
और शक्ति, जब अहंकार से मुक्त हो,
तभी स्थायी होती है।


समुद्र मंथन केवल पुराण का प्रसंग नहीं है।
यह गहराई का रूपक है।

कभी-कभी जीवन हमें मंथन में डालता है—
अंदर घुमाव, उलझनें, थकान।

लेकिन जब वह झंझावात शांत होता है,
तब भीतर से कुछ निकलेगा—
हो सकता है औषधि हो,
हो सकता है विष हो,
और कभी-कभी
अमृत भी।

और तब स्पष्ट होता है—
हर उपलब्धि को पाने के लिए
दोनों हाथों से रस्सी पकड़नी पड़ती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *