कुरुक्षेत्र का युद्ध अपने सबसे निर्णायक मोड़ पर था। आकाश में धूल का अर्धचंद्र झूल रहा था, भूमि पर रथों के पहिए गहरे निशान खींच रहे थे। पांडव सेना आज एक ऐसी चुनौती के सामने थी जिसका उत्तर उनके पास नहीं था—चक्रव्यूह।
यह कोई साधारण सैन्य गठन नहीं था। यह रणनीति का एक घूमता हुआ सर्प था, चलती हुई दीवारों का घुमावदार किला।
और आज, उस सेना में केवल एक व्यक्ति था जो इसके केंद्र तक जाने का रहस्य जानता था—अभिमन्यु।
अभिमन्यु अभी उम्र में युवा थे—ऊर्जा, साहस, और तेजस्विता से भरे हुए।
उनकी नज़र में युद्ध कोई खेल नहीं था, लेकिन न्याय का मार्ग था।
और न्याय आज पुकार रहा था।
महारथी अर्जुन उस दिन दूसरे मोर्चे पर व्यस्त थे।
कौरवों ने गढ़ा यही था—जब अर्जुन अनुपस्थित हों, तभी यह चक्रव्यूह रचा जाए।
दुर्योधन मुस्कुरा रहा था।
रणनीति आज स्पष्ट थी।
पांडवों के सामने विकल्प कम थे।
किसी को तो अंदर जाना ही था।
युद्ध रुक नहीं सकता था।
अभिमन्यु आगे आए।
उन्होंने कहा, “मैं प्रवेश करना जानता हूँ।”
वाक्य छोटा था—भारी प्रभाव वाला।
वे यह नहीं जानते थे कि
बाहर कैसे निकला जाए।
दरअसल, यह रहस्य उन्होंने अर्जुन के गर्भस्थ अवस्था में सुना था।
जब अर्जुन अपने पुत्र के भ्रूण को युद्धनीतियाँ समझा रहे थे,
उसे बाहर निकालने का तरीका बताने से पहले
उलझन के शोर ने सुनना रोक दिया।
भाग्य ने पहले ही अपना नोट लिख दिया था।
जब अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया,
उसके घूमते द्वारों ने उन्हें भीतर खींच लिया।
उनके पीछे पांडव प्रवेश करने की कोशिश करते रहे,
पर जयद्रथ ने अकेले ही सबको रोक दिया।
चक्रव्यूह अब बंद हो चुका था।
अभिमन्यु अकेले।
भीतर—भीष्म की भौंहों की कठोरता,
कर्ण के बाणों की चमक,
द्रोण की स्थिर दृष्टि,
कृप के संयमित वार,
दुर्योधन का छिपा हुआ संतोष,
और शल्य का अनुभव—
एक साथ।
युद्ध का नियम कहता था—अकेले योद्धा पर एक साथ वार नहीं।
लेकिन नियम वहाँ टिकते हैं जहाँ भय नहीं होता।
कौरव भयभीत थे—
कि एक किशोर उनकी रणनीति को तोड़ रहा है।
धीरे-धीरे,
नियम खिसकते गए।
धर्म पतला होने लगा।
कर्ण के बाणों ने उनकी ढाल को कंपाया।
द्रोण के वारों ने उनकी दिशा छीन ली।
दुर्योधन की चोटों ने थकान को भारी किया।
और फिर वह क्षण आया,
जो इतिहास में प्रश्न के रूप में दर्ज हुआ।
कई महावीर—
एक किशोर के विरुद्ध।
अभिमन्यु गिर पड़े।
उनका धनुष टूट चुका था।
उन्होंने रथचक्र उठाया—
शस्त्र खत्म होने पर अर्थ खत्म नहीं होता।
पल भर को लगा कि धर्म की अग्नि बुझ रही है।
परन्तु आग केवल बुझने के बाद राख नहीं छोड़ती,
कभी-कभी स्मृति भी छोड़ती है—
और स्मृति ही इतिहास लिखती है।
जब पांडवों को यह समाचार मिला,
वातावरण फट पड़ा।
अर्जुन की आँखों में वह मौन दिखाई दिया
जो तूफानों का पूर्वाभास है।
अर्जुन ने प्रतिज्ञा ली—
कि अगले सूर्यास्त तक
जयद्रथ जीवित नहीं रहेगा।
महाभारत का स्वर आज बदल गया था।
यह अब केवल क्षेत्र का युद्ध नहीं,
चरित्रों का युद्ध था।
लोग अक्सर पूछते हैं—
क्या अभिमन्यु की मृत्यु अधर्म थी?
कथा इसका उत्तर स्वीकारती है।
युद्ध के नियम टूटे थे।
निष्पक्षता छूटी थी।
बहु-आक्रमण धर्मशास्त्र में निषिद्ध है।
परन्तु इतिहास की एक कड़वी सच्चाई है—
जब भय बढ़ता है, नियम छोटे पड़ते हैं।
अधर्म वहीं जन्म लेता है
जहाँ अनुशासन आँसू बन जाता है।
अभिमन्यु केवल एक योद्धा नहीं थे।
वे युवा साहस के प्रतीक थे।
उनकी मृत्यु ने पांडवों की चेतना में ऐसा शूल चुभोया
जिसने अगले दिनों के युद्ध का स्वरूप बदल दिया।
और वर्षों बाद,
जब लोग इस युद्ध को स्मरण करते हैं,
वे प्रश्न फिर लौट आता है—
किस दिन युद्ध से अधिक मनुष्य की प्रवृत्ति लड़ी?
चक्रव्यूह ने न केवल शरीर को घेरा था,
उसने नैतिकता को भी परीक्षा में खड़ा कर दिया था।
अभिमन्यु की कथा का सार
किसी विजेता या हारने वाले में नहीं,
उस निर्णय में छिपा है
जो मनुष्य को धर्म और भय के बीच चुनने को मजबूर करता है।
कभी-कभी,
युद्ध जीतकर भी मनुष्य
कहानी हार जाता है।
महाभारत यही सिखाता है—
धर्म की रक्षा साहस से होती है,
पर साहस अकेला हो जाए,
तो इतिहास रोता है।
आज भी, चक्रव्यूह केवल ग्रंथों में नहीं,
मन के भीतर घुमता है—
और हर बार वही प्रश्न पूछता है:
जब सत्य अकेला रह जाए,
क्या हम नियम निभाते हैं…
या परिणाम गढ़ते हैं?
