Ashwatthama 1

महाभारत के युद्ध का अंत जब हुआ, तब कुरुक्षेत्र की भूमि पर शांत दिखती धूल के नीचे अनगिनत कहानियाँ दब चुकी थीं। रथों के निशान मिट रहे थे, पर मनुष्यों के कर्म उनसे भी गहरे अंकित रह गए। उन्हीं कर्मों में एक नाम सबसे अधिक गूँजता है—अश्वत्थामा। वह योद्धा जिसकी पहचान धनुर्विद्या से नहीं, बल्कि उस श्राप से हुई जिसने उसे युगों तक जीवित रहने के लिए बाँध दिया।

अश्वत्थामा जन्म से ही साधारण नहीं थे। वह द्रोणाचार्य के पुत्र थे—वही द्रोण जो उस समय युद्धकला के सर्वोच्च ज्ञान को धारण करते थे। अश्वत्थामा ब्राह्मण कुल से आए, पर स्वभाव में क्षत्रिय प्रवृत्ति थी। जन्म के समय उन्हें एक दिव्य मणि प्राप्त हुई थी, जो शरीर को रोग, तृष्णा और अस्त्रों की पीड़ा से बचाती थी। इस मणि के कारण लोग उन्हें शिव का अंश मानते थे। कहा जाता है कि उनके भीतर शिव की उग्र ऊर्जा थी—जिसमें संयम और विनाश दोनों का बीज छिपा रहता है।

युद्धभूमि में पिता की मृत्यु का समाचार उनके मन में ऐसी चोट छोड़ गया जिसकी प्रतिध्वनि आज तक सुनी जा सकती है। द्रोणाचार्य का अस्त्र त्याग केवल इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें विश्वास दिलाया गया कि उनका पुत्र मारा जा चुका है। यह समाचार असत्य था, पर उसके परिणाम सत्य की तरह कठोर। जब अश्वत्थामा ने अपने पिता का शरीर देखा, शब्द उनके भीतर जम गए। वे मौन हुए, पर उनका मौन शांत नहीं था। यह मौन प्रतिशोध की ओर झुकता गया—एक ऐसे निर्णय की ओर जो भविष्य को अंधेरे में धकेल देता है।

युद्ध समाप्त हो चुका था। विजेता और पराजित दोनों थके हुए शिविरों में लौट चुके थे। लेकिन विजय मनाने की रात, अश्वत्थामा ने स्वयं को रोक नहीं पाया। प्रतिशोध में निर्णय कमजोर होता है; यह बात उन्होंने उसी रात सिद्ध कर दी। वह पांडव शिविर में घुसे, और गलती से उन पाँच किशोरों के प्राण ले लिए जो द्रौपदी के पुत्र थे—पांडवों के नहीं। प्रतिशोध का लक्ष्य बदल चुका था, पर क्रोध ने उन्हें यह पहचानने नहीं दिया। यह कर्म अधर्म था, और उसी क्षण भविष्य ने मोड़ ले लिया।

सुबह जब द्रौपदी ने अपने पुत्रों के शरीर देखे, तो रोदन का स्वर वेगवान नदी जैसा उठा। उनका दुःख केवल माता का नहीं, धर्म का भी था। कृष्ण और पांडवों ने अश्वत्थामा को पकड़ने का संकल्प लिया। उन्हें बाँधकर वापस लाया गया—एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो अब अपने ही कर्मों से बंधा हुआ था।

दंड एक युद्धप्रिय मनुष्य के लिए मृत्यु भी हो सकता था, पर कृष्ण ने कुछ और चुना। उन्होंने उसकी मस्तक से वह मणि अलग कर दी जिसने उसे ऊर्जस्वरूप रखा था। मणि के हटते ही अश्वत्थामा से वह तेज लुप्त हो गया। कृष्ण ने कहा कि वह पृथ्वी पर जीवित रहेगा—परंतु सम्मान, संगति और शांति के बिना। उसका शरीर धीरे-धीरे घावों से भरता रहेगा, लेकिन मृत्यु उसे छू नहीं सकेगी। यह दंड इसलिए नहीं कि वह मर जाए, बल्कि इसलिए कि वह अपने कर्म की प्रतिध्वनि सुनता रहे

समय बीता। पर्वत, जंगल और निर्जन प्रदेश अश्वत्थामा का घर बन गए। लोककथाएँ कहती हैं कि वह आज भी किसी साधु जैसे स्वरूप में घूमता है—घावों के साथ, मौन के साथ, पश्चाताप के साथ। किसी जगह नमक माँग लेने की कथा हो या किसी मंदिर में रुद्राक्ष छोड़ जाने की—लोगों ने उसमें वही दर्द महसूस किया जिसका बोझ मृत्यु भी हल्का नहीं कर सकती।

वास्तविकता की दृष्टि से देखा जाए तो यह कथा केवल एक श्राप की कहानी नहीं, बल्कि मानव मनोविज्ञान का गहरा संकेत है। जब क्रोध विवेक पर जीत हासिल कर लेता है, परिणाम वर्षों तक पीछा करता है। महाभारत का यह प्रसंग धर्मशास्त्र का सूक्ष्मतम बिंदु है—the choice between vengeance and justice.

भारत के कुछ क्षेत्रों में आज भी अश्वत्थामा का नाम श्रद्धा और भय दोनों के साथ लिया जाता है। लोग मानते हैं कि वह ज्ञान का भंडार है, परंतु उसकी दृष्टि किसी को लंबा समय प्रभावित कर सकती है। उसके लिए आराधना नहीं होती, बल्कि प्रार्थना होती है—कि क्रोध कभी हमारे निर्णय न लिखे।

महाभारत हमें बताता है कि मृत्यु से बड़ा दंड कभी-कभी जीवन ही होता है—वह जीवन जो अपने ही कर्मों से सवाल पूछता है। अश्वत्थामा चलता रहता है क्योंकि वह रुक जाए, इसका अर्थ होगा कि सीख रुक गई। और सीख रुक जाए, तो इतिहास अपने आप को दोहराने लगता है।

कुरुक्षेत्र की धूल अब शांत है। समय ने घाव ढक दिए हैं। पर पौराणिक स्मृति कहती है—जहाँ कहीं प्रतिशोध तर्क से तेज हो जाए, वहाँ अश्वत्थामा की छाया अवश्य दिखाई देती है। क्योंकि यह कथा केवल एक व्यक्ति की नहीं, मनुष्य की है।

और इस कहानी का सार सरल है:
धर्म युद्ध जीत सकता है,
पर अधर्म मनुष्य को हारने के लिए छोड़ देता है—अनंत काल तक

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