कहते हैं,
हर राक्षस बुरा नहीं होता,
और हर देवता सही नहीं होता।
कुंभकर्ण, रावण का छोटा भाई,
इस सत्य का सबसे बड़ा प्रमाण था।
कुंभकर्ण का जन्म — शक्ति का वरदान, नियति का अभिशाप
कुंभकर्ण का जन्म हुआ ऋषि विश्रवा और कैकसी के घर में।
वो रावण और विभीषण का भाई था —
रावण में शक्ति थी,
विभीषण में धर्म था,
और कुंभकर्ण में दोनों का मिश्रण।
बचपन से ही उसका शरीर पर्वत जैसा विशाल था।
वो जब चलता, तो धरती काँप जाती।
उसकी आवाज़ गरजती थी जैसे बादल।
लेकिन उसके भीतर का हृदय कोमल था —
उसे हिंसा से घृणा थी,
उसे बस खाना और सोना पसंद था,
क्योंकि यही उसे शांति देता था।
🪔 इंद्रलोक में भय — और वरदान की भूल
जब ब्रह्मा जी ने उसे वरदान देने का वचन दिया,
तो देवताओं में भय फैल गया।
उन्होंने सोचा —
“अगर ये राक्षस कभी जाग्रत रहा, तो तीनों लोकों में विनाश कर देगा!”
इंद्र और देवी सरस्वती ने चाल चली।
जब कुंभकर्ण ने वरदान माँगना शुरू किया,
तो सरस्वती ने उसकी वाणी भ्रमित कर दी।
वो कहना चाहता था —
“निर्द्र (जो कभी न सोए)”
पर मुँह से निकला —
“निद्र” — यानी “सदैव सोने वाला।”
ब्रह्मा जी मुस्कुराए और बोले —
“तथास्तु।”
रावण ने गुस्से में सिर झुका लिया,
पर कुंभकर्ण ने हँसते हुए कहा —
“शायद यही ठीक है,
क्योंकि जागकर मैं विनाश ही करूँगा,
तो सोना ही बेहतर है।”
इस तरह कुंभकर्ण को छह महीने की गहरी नींद का वरदान मिला।
वो जब जागता, तो छह महीने की भूख मिटाने के लिए
पूरा नगर खा जाता।
रावण का पाप और कुंभकर्ण की पीड़ा
जब रावण ने सीता माता का हरण किया,
विभीषण ने विरोध किया —
पर कुंभकर्ण तब सो रहा था।
जब उसे जगाया गया,
तो पूरा लंका उसके उठने से काँप गई।
उसने आँखें खोलीं,
तो सामने रावण खड़ा था — गर्व और क्रोध से भरा।
कुंभकर्ण ने पूछा —
“भैया, आपने क्या किया?”
रावण बोला —
“मैंने सीता को लंका लाया हूँ,
और अब कोई मुझे रोक नहीं सकता!”
कुंभकर्ण चुप रहा।
उसके भीतर दो आवाज़ें लड़ रही थीं —
एक कहती, “भाई का साथ दो।”
दूसरी कहती, “धर्म का साथ दो।”
आख़िरकार उसने कहा —
“भैया, आप राजा हैं, मैं आपका सेवक।
मैं आपका साथ दूँगा,
पर ये जान लीजिए —
ये युद्ध अधर्म का है,
और इसका अंत विनाश में ही होगा।”
रावण मुस्कुराया,
“मुझे तेरी ज़रूरत नहीं, मुझे बस तेरा बल चाहिए।”
कुंभकर्ण बोला —
“मेरा बल तब तक है जब तक मेरा विवेक जीवित है।”
⚔️ युद्धभूमि — जहाँ धर्म और निष्ठा आमने-सामने खड़े थे
लंका की भूमि युद्ध से काँप उठी।
कुंभकर्ण रणभूमि में उतरा —
उसका हर कदम भूकंप सा था।
वानरों में भय फैल गया।
पर उसके चेहरे पर कोई अहंकार नहीं था —
बस कर्तव्य की शांति थी।
हनुमान ने उसके सामने खड़े होकर कहा —
“कुंभकर्ण, तू इतना बलवान है,
तो इस अधर्म का साथ क्यों दे रहा है?”
कुंभकर्ण बोला —
“मुझे मालूम है ये अधर्म है।
पर मेरा धर्म है —
अपने भाई के साथ आखिरी साँस तक रहना।”
फिर भी उसके मन में एक दर्द था —
वो जानता था, उसका अंत निकट है।
उसने प्रहार किया, पर मन से राम को प्रणाम किया।
क्योंकि वो जानता था —
“जिस भूमि पर सत्य खड़ा है, वहाँ झूठ कभी टिक नहीं सकता।”
अंतिम क्षण — जब राक्षस ने देवत्व पा लिया
जब कुंभकर्ण राम के बाणों से घायल हुआ,
वो मुस्कुराया —
“धन्य हूँ, प्रभु…
आपके हाथों मृत्यु पाना मेरे लिए मुक्ति है।”
राम ने धनुष नीचे रखा और कहा —
“कुंभकर्ण, तू राक्षस नहीं —
एक योद्धा है,
जिसने धर्म को पहचाना,
पर निष्ठा का बंधन नहीं तोड़ सका।”
कुंभकर्ण ने धीमे स्वर में कहा —
“भैया के लिए लड़ा,
पर सत्य के लिए मरा —
यही मेरे जीवन का संतुलन था।”
वो गिर पड़ा, और आसमान में गूँज उठा —
“जय कुंभकर्ण!”
उसकी मृत्यु पर राम भी मौन रहे।
क्योंकि उन्होंने देखा था —
एक राक्षस नहीं,
एक महापुरुष गिरा था।
कुंभकर्ण की आत्मा — जो आज भी सिखाती है
कुंभकर्ण की कहानी हमें सिखाती है —
कभी-कभी धर्म और निष्ठा दोनों सही होते हैं,
पर उनका साथ निभाना एक-दूसरे के विपरीत होता है।
वो सिखाता है कि
“सच्चा योद्धा वो नहीं जो जीत जाए,
बल्कि वो है जो दिल से सही रास्ता पहचान ले।”
कुंभकर्ण ने अधर्म का साथ नहीं चाहा,
लेकिन उसने अपने रिश्ते का सम्मान किया।
उसकी मौत हार नहीं थी —
वो विवेक और प्रेम की जीत थी।
संदेश
“कभी-कभी हमें अपने प्रियजनों के साथ रहते हुए भी
सत्य का सम्मान करना पड़ता है।
कुंभकर्ण ने निष्ठा नहीं छोड़ी,
लेकिन सत्य को भी नकारा नहीं।
और यही उसे राक्षसों में देवता बनाता है।”
इसलिए, जब अगली बार कोई कहे कि कुंभकर्ण सिर्फ़ सोता था —
तो उन्हें कहना,
“हाँ, वो सोता था…
क्योंकि जागने पर वो पूरी दुनिया को उसकी सच्चाई दिखा देता था।”
