अमरावती के द्वार कांप रहे थे।
सोने से चमकते प्रांगण में धूल का धुंधला बादल उठा हुआ था।
सैनिकों की ढालें थरथरा रही थीं, और कहीं दूर से भारी कदमों की गूंज सुनाई दे रही थी।
महिषासुर—आधा भैंसा, आधा मनुष्य—गरजते हुए आगे बढ़ा।
उसकी आँखों में घमंड का तेज था, और आवाज़ चट्टानों जैसी मोटी।
“हटो,” वह दहाड़ा।
एक सींग की चोट में तीन सैनिक उड़ गए।
एक छलांग में महिषासुर ने स्वर्ग के द्वार पर प्रहार किया।
द्वार चरमराया… और टूट गया।
थोड़ी ही देर बाद, वह इंद्र के सिंहासन पर बैठा था।
“आज से,” उसने चिल्लाकर कहा,
“यह राज्य मेरा है!”
देवता मौन खड़े रहे।
स्वर्ग—गिर चुका था।
☁️ देवताओं की सभा
कहीं दूर, एक शांत स्थान में देवताओं की सभा लगी।
इंद्र ने मेज पर मुट्ठी मारी।
“वज्र भी बेअसर हो गया। वह रुक नहीं रहा!”
अग्नि नीचे देखते हुए बोले,
“मेरी ज्वाला बस धुआँ साबित हुई।”
सभी की निगाहें ब्रह्मा पर ठहर गईं।
ब्रह्मा ने लंबी सांस ली,
“मैंने वर दिया था—
कोई देव या मनुष्य उसे नहीं मार सकता।”
कुछ क्षण की चुप्पी…
“और स्त्री?” किसी ने पूछा।
महिषासुर ने वर लेते समय हँसकर कहा था:
“स्त्री? वह मुझे क्या बिगाड़ेगी?”
वही हँसी अब देवताओं के लिए समस्या बन चुकी थी।
विष्णु धीरे से बोले—
“तो समाधान भी वहीं है।”
🌩️ देवशक्ति का संगम
एक-एक देव ने अपनी शक्ति रूपी प्रकाश बाहर निकालना शुरू किया।
शिव का नील तेज।
विष्णु का शांत प्रकाश।
इंद्र की बिजली।
वरुण की गहराई।
अग्नि की गर्म साँस।
वायु का वेग।
प्रकाश बढ़ता गया—
जितना देखा जाए, इतना नहीं था।
धीरे-धीरे प्रकाश का आकार उभरने लगा।
केश—बादलों जैसे काले।
नेत्र—भोर जैसे चमकदार।
करें—दस।
सिंह—पक्ष में दहाड़ता।
जब प्रकाश थमा—
वह वहाँ थीं।
देवी दुर्गा।
उन्होंने बस इतना कहा—
“वह कहाँ है?”
🐃 महिषासुर का अहंकार
इंद्र के कब्जे वाले दरबार में संदेश पहुंचा—
“एक स्त्री द्वार पर है।”
महिषासुर ज़ोर से हँसा।
“स्त्री? भेज दो! जल्दी निपट जाएगा।”
दरबार के द्वार खुले।
दुर्गा भीतर आईं।
कमरा चुप हो गया।
हवा घनी हो गई।
महिषासुर का हँसना धीमा पड़ गया—
पर शब्द उसने वही दोहराए:
“लौट जाओ। स्वर्ग अब मेरा है।”
दुर्गा ने बस इतना कहा—
“संतुलन किसी एक का नहीं।”
और सिंह ने दहाड़ मारी।
⚔️ युद्ध
महिषासुर भैंसे के रूप में झपटा।
धरती काँपी।
दुर्गा शांत खड़ी रहीं—
और आख़िरी क्षण पर हट गईं।
भाला घूमकर उसके कंधे को चीर गया।
महिषासुर फिर बदल गया—
वो अब विशाल हाथी था।
दुर्गा उसकी पीठ पर कूद गईं—
एक वार में दांत टूटे।
गर्जना!
अब वह सिंह था।
दुर्गा का सिंह सामने आ गया—
दांतों की भिड़ंत, पंथर्र-सी आवाज़।
रात गूँज उठी।
फिर वह सूअर बना, बादलों जैसा तूफान बना,
धुंआ बना, फुर्तीली छाया बना।
हर बार—दुर्गा तैयार थीं।
उनकी सांसें स्थिर।
उनकी नज़र शांत।
🔻 अंतिम रूप
थककर महिषासुर अपने असली रूप में लौटा—
भैंसे और मनुष्य का मिश्रण।
सींग नीचे।
गुस्सा पूरा।
दुर्गा फुसफुसाईं—
“यही रूप तुम्हें ढकता था।”
भाला चला—
सीधा, सटीक, अंतिम।
महिषासुर लड़खड़ाया,
आँखें चौड़ी हुईं,
शरीर भारी हुआ—
और वह गिर पड़ा।
स्वर्ग की हवा हल्की हो गई।
🌸 विदाई
देवता दौड़ आए।
जय घोष होने लगे।
इंद्र झुके—
“देवी, हमारे साथ रहिए। राज संभालिए!”
दुर्गा मुस्कुराईं।
“मैं शासन नहीं,
संतुलन के लिए आती हूँ।”
और उसी हवा के साथ
जिसने उन्हें बनाया था—
वह चली गईं।
उनके जाने के बाद भी
ढोल बजे, दीप जले,
कथाएँ आगे बढ़ीं।
दुर्गा इसलिए अमर नहीं हुईं
क्योंकि उन्होंने राक्षस को मारा—
बल्कि इसलिए
क्योंकि उन्होंने वह किया
जब कोई और नहीं कर सकता था।
और यही कहानी
हर सदी में दोहराई जाती है।
