कुरुक्षेत्र के विशाल मैदान में युद्ध की गर्जना जब उभर रही थी, तभी हस्तिनापुर के राजमहल में एक वृद्ध राजा, जन्म से अंधे, अपने आस-पास की हर आवाज़ से युद्ध को महसूस कर रहे थे। रक्त की गंध उनके पास नहीं पहुँच सकती थी, परंतु युद्ध का भार उनकी सांसों में उतर रहा था। यह राजा था—धृतराष्ट्र।
उनकी आँखें बंद थीं, पर मन बेचैन था।
वह देख नहीं सकते थे, पर जानना चाहते थे कि मैदान में उनके पुत्र, उनके वंश की अंतिम आशा, किस दिशा में बह रही थी।
ऐसे समय में जो व्यक्ति उनके पास बैठकर हर दृश्य को शब्दों में ढाल रहा था, वह था—संजय।
उसने युद्ध नहीं देखा, पर वह उससे अधिक जिया।
उसकी दृष्टि साधारण नहीं थी।
वह केवल आँखों से नहीं, चेतना से देखता था।
संजय कोई सेनापति या विद्वान नहीं था। वह सामान्य स्वभाव का व्यक्ति था, जिसकी पहचान उसके आचरण से अधिक, विश्वास से बनी। महाभारत के समय में गुरुओं और ऋषियों की दृष्टि केवल अध्यात्म तक सीमित नहीं थी—they understood the human nervous system, consciousness, memory, and the power of silence.
महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र को दिव्यदृष्टि देने का प्रस्ताव रखा था—जिससे वह युद्ध स्वयं देख पाते। धृतराष्ट्र ने मना कर दिया।
कारण स्पष्ट था—अपने पुत्रों का विनाश अपनी आँखों से देखना वह सहन नहीं कर पाते।
वेदव्यास मुस्कुराए।
उन्होंने यह शक्ति संजय को दी।
यह कोई जादू नहीं था।
यह चेतना का जागरण था।
कहा जाता है कि दिव्यदृष्टि एक ऐसी शक्ति है जो समय और स्थान की दीवारें भेद देती है। लेकिन इसके पीछे एक शर्त छिपी होती है—मन शांत हो, अहंकार स्थिर हो, और स्मृति निर्खंड हो।
संजय में ये तीनों गुण थे।
इसलिए वह युद्ध को सूक्ष्म स्तर पर अनुभव कर सकते थे।
कुरुक्षेत्र में होने वाली हर चाल—घोड़ों की टाप, रथ के पहियों की खट्ट-खट, तीरों के संधान की कंपन, योद्धाओं के मन की थरथराहट—सब उनके भीतर रूप ले लेती।
वह आँखें बंद करके भी सबकी आँखों से देख रहे थे।
युद्ध के दौरान धृतराष्ट्र की साँसें तीखी हो जातीं।
उनकी उंगलियाँ सिंहासन की बाँह को कसकर पकड़ लेतीं।
हर आह, हर कराह, हर विदाई—संजय की आवाज़ से निकलकर उनके हृदय में उतरती थी।
संजय की आवाज़ उन दिनों हस्तिनापुर के महलों की दीवारों में गूँजती रही।
वह वर्णन करते थे कि कैसे अर्जुन के रथ की धूल जमीन पर बिछ रही है, कैसे भीम की गदा गरजती है, और कैसे कृष्ण के आँखों में वह शांति है जो केवल सागर को प्राप्त है।
धृतराष्ट्र केवल सुनते नहीं थे—वे टूटते भी थे।
आज कई लोग यह प्रश्न पूछते हैं:
दिव्यदृष्टि क्या वास्तव में थी?
महाभारत इसे सिर्फ चमत्कार नहीं कहता।
यह एक मानसिक जागरण था—a heightened state of consciousness.
वैज्ञानिक तर्क हों या दार्शनिक, दोनों ही इसे उपमा से समझते हैं:
● एक व्यक्ति जो मन, शरीर और इंद्रियों के बंधन से ऊपर उठे
● जिसकी स्मृति ऐसी हो कि कोई छवि मिटे नहीं
● जिसका मन इतना शांत हो कि समय का प्रवाह बाधा न बने
वेदव्यास ने संजय को वही अवस्था दी थी।
कभी ध्यान में बैठे साधुओं की आँखें आपसे पहले आपकी बेचैनी जान लेती हैं—दिव्यदृष्टि उसी का व्यापक रूप है।
संजय ने केवल युद्ध का वर्णन नहीं किया।
उन्होंने धृतराष्ट्र के भय, पांडवों के संयम, कौरवों के गर्व, अर्जुन की स्तब्धता, और कृष्ण के मौन को भी देखा।
उनकी दृष्टि तलवारों की दिशा से नहीं, कर्मों की दिशा से चलती थी।
कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले जब अर्जुन हथियार छोड़ देते हैं और गीता का उपदेश मिलता है, उसी क्षण संजय के भीतर एक निःशब्द थरथराहट उठती है।
वह अच्छी तरह जानते थे कि अब युद्ध केवल हथियारों का नहीं रहा—यह युद्ध चेतना का हो गया है।
धृतराष्ट्र उस पहाड़ बनने की कोशिश करते हैं जो खड़ा रहे, परंतु संजय की प्रत्येक पंक्ति उन्हें याद दिलाती है—
जिस निर्णय से यह युद्ध प्रारंभ हुआ था, वही आज हर योद्धा के हृदय में आग बनकर जल रहा है।
महाभारत के अंत में, जब अंतिम रथ गिरता है, अंतिम श्वास टूटती है, और युद्ध का संगीत धीमा हो जाता है, संजय चुप हो जाते हैं।
उनकी आवाज़ में थकान नहीं, पर अपूर्णता थी।
वह जानते थे—उन्होंने देखा था मनुष्य के कर्मों का प्रतिफल।
और उस प्रतिफल में हर आँख कहीं-न-कहीं उस व्यक्ति को ढूँढ रही थी जिसे वे “अपना” कहते थे।
धृतराष्ट्र मौन बैठे थे।
जो हुआ, वह सुन लिया गया था।
जो बचा, वह शोक था।
दिव्यदृष्टि की असली शक्ति क्या थी?
यह प्रश्न आज भी हवा में तैरता है।
कुछ कहते हैं—यह मस्तिष्क की गहराई है।
कुछ कहते हैं—ध्यान का फल।
कुछ कहते हैं—योगबल, मनोबल और आयुबल का संगम।
और कुछ बस इतना कहते हैं—
जब मनुष्य धर्म और अधर्म के संघर्ष का इतिहास बनाता है, उस कहानी को देखने के लिए प्रकृति किसी एक को चुना करती है।
संजय वही चयन थे।
आज जब लोग दूरदृष्टि की बात करते हैं, वे तकनीक की ओर देखते हैं—दूरबीन, उपग्रह, स्क्रीन।
महाभारत संकेत देता है—
सबसे सूक्ष्म दृष्टि उपकरण के बाहर नहीं, मन के भीतर होती है।
एक व्यक्ति जो शांत है,
स्थिर है,
निष्पक्ष है—
वह जीवन की चालें दूर से पहचान सकता है।
संजय सच देखने वाले थे।
इतिहास बोलने वाला साधन नहीं, सच सुनाने वाला व्यक्ति।
और शायद इसी कारण उनकी कहानी आज भी दुहराई जाती है—
क्योंकि दुनिया बदलती है,
पर दृष्टि की योग्यता—
वह हमेशा दुर्लभ रहती है।
