देवी ब्रम्ह्चारिणी की कथा एवं उनके स्वरुप के बारे में जाने

नवरात्रों के दौरान देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है हर दिन देवी के अलग अलग स्वरुप को पूजा जाता है| नवरात्रों में द्वितीय अर्थात दुसरा दिन देवी दुर्गा के दुसरे स्वरुप ब्रम्ह्चारिणी देवी को समर्पित है| जैसा की नाम से ही पता चल रहा है की ब्रम्ह्चारिणी यानी की सादे भेष में रहने वाली और सदा ही प्रभु की उपासना करने वाली|

कई भक्त देवी को तपश्चारिणी के नाम से भी पुकारते है जिसका अर्थ भी ब्रम्ह्चारिणी ही होता है| ध्यान रहे की यहाँ ब्रह्म का मतलब तपस्या से है और देवी ब्रम्ह्चारिणी का रूप किसी तपस्विनी की भाति ही है| देवी दुर्गा के इस रूप की उपासना करने से उनके भक्तों को बड़े ही सुखदायी फल प्राप्त होते हैं और साथ ही इनके उपासकों में त्याग, तप, वैराग्य, संयम और सदाचार की प्राप्ति होती है।

माता ब्रम्ह्चारिणी का यह रूप बड़ा ही भव्य और प्रकाश से भरा हुआ है देवी के इस रूप का तेज भक्तों की आँखों की बड़ा ही प्रिय लगता है| ब्रम्ह्चारिणी या फिर तपश्चारिणी का मतलब ही होता है तप का आचरण करने वाली या फिर आसान शब्दों में कहें तो सात्विक एवं धार्मिक प्रवृति वाली| देवी ब्रम्ह्चारिणी के बाएं हाथ में कमंडल तथा उनके दायें हाथ में माला है जैसी की प्रायः साधकों के पास होती है जिसका उपयोग वो जप करने के लिए करते हैं|

देवी ब्रम्ह्चारिणी पर्वत राज की पुत्री थी तथा नारद मुनि द्वारा शिव लीलाओं का बखान सुनने के बाद तपस्विनी का भेष बना कर भगवान् शिव को वर रूप में पाने के लिए बड़ी कठिन तपस्या का संकल्प किया था| उनकी कठिन तपस्या का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है की उन्होंने जो कष्ट सहे वो सोच कर भी हमारे पूरे बदन में झुरझुरी सी दौड़ जाती है|

पहले तो देवी ब्रम्ह्चारिणी ने बदन को जलाने वाली धुप, शरीर को कपकंपा देने वाली ठंढ या फिर मूसलाधार वर्षा हो किसी की भी परवाह नहीं करते हुए खुले आसमान के निचे कठिन उपवास रखा| परन्तु फिर भी शिव प्रसन्न नहीं हुए तो उन्होंने अगले तीन हज़ार वर्ष तक बेल के वृक्ष के टूटे हुए पत्ते यानी की बिल्व पत्र खाकर अपनी तपस्या जारी रखी|

फिर उन्होंने देखा की इससे भी कोई फायदा नहीं हो रहा है तो उन्होंने बिल्व पत्र का भी त्याग कर दिया और अगले हज़ारों वर्षों तक बिना खाए पीये रही परन्तु अपनी तपस्या भंग नहीं होने दी| जब उन्होंने पत्ते खाना भी छोड़ दिया तो उन्हें अपर्णा के नाम से भी जाना गया इतनी कठिन तपस्या की वजह से उनके शरीर में बिलकुल शक्ति नहीं बची और उनके शरीर की हालत बड़ी क्षीण हो गयी|

उस समय जिसे भी उनके बारे में पता चला सभी ने उनके तपस्या की सराहना की चाहे वो सिद्धपुरुष हो, देवता हो, ऋषि हो या फिर देवऋशी नारद हो सभी का ह्रदय उनके लिए सम्मान से भर गया|

तभी देवऋषि नारद उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्होंने देवी ब्रम्ह्चारिणी से कहा की देवी तुम्हारा तप अविश्वसनीय एवं सराहनीय है तुम्हारी मनोकामना शीघ्र ही परिपूर्ण होगी| जल्द ही भगवान् भोलेनाथ तुम्हे पत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे अब तुम वापस घर चली जाओ तुम्हारी माता और तुम्हारे पिता भी तुम्हारी राह देख रहे होंगे|

और तभी से देवी ब्रम्ह्चारिणी के इस रूप की पूजा नवरात्रों के दुसरे दिन की जाने लगी| देवी ब्रम्ह्चारिणी का स्वरुप यह दर्शाता है की चाहे कोई भी परेशानी आये हमें कभी भी विचलित नहीं होना चाहिए| सर्व सिद्धि की प्राप्ति के लिए देवी ब्रम्ह्चारिणी का पूजन करना अनिवार्य है|

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